Thursday, January 5, 2012

उड़ीसा हो या जापान, मछली को शाकाहार में ही गिना जाता है Vegetarianism

सन 1998 में सैयद अब्दुल्लाह तारिक़ साहब ने रामपुर में एक संस्कृत संभाषण वर्ग का आयोजन किया था। उसमें आचार्य गजेंद्र कुमार पंडा जी तशरीफ़ लाए थे। वह तब तक 6 गोल्ड मेडल पा चुके थे और एक प्रसिद्ध यूनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसर थे। वेदांत में उन्होंने पी. एचडी. की थी। रामपुर में उनके रहने का इंतेज़ाम जमाअते इस्लामी के ज़िम्मेदार डा. इब्ने फ़रीद साहब के घर था और उनके खाने का इंतेज़ाम सैयद अब्दुल्लाह तारिक़ साहब के घर। उन्हें रामपुर आने से बहुत डराया गया था कि वहां जाओगे तो मुसलमान आपको मार देंगे लेकिन फिर भी वह आ गए थे।
हम उनसे मिलने रामपुर गए और फिर उनकी प्रतिभा देखी तो हमने भी उन्हें अपने शहर में बुलाया। उनके साथ रामपुर से सैयद अब्दुल्लाह तारिक़ साहब भी तशरीफ़ लाए थे। पहले दिन उनका हम सभी ने बड़ी गर्मजोशी से स्वागत किया।

यह फ़ोटो उसी पहले दिन का है। फ़ोटो के पीछे 2 जून 1998 लिखा है।
इस वर्ग का आयोजन हमने जैन इंटर कॉलिज में किया था लेकिन ताज्जुब की बात है कि सीखने वालों में हिंदू भाई केवल 3 थे। इसमें मुस्लिम लड़कियों ने भी बड़ी तादाद में हिस्सा लिया था और लड़कों में भी ज़्यादा मदरसे के तालिब इल्म थे। इन सबने ही आचार्य श्री पंडा जी को जो आदर सम्मान दिया, उससे पंडा जी बहुत अभिभूत हुए और हक़ीक़त यह है कि पंडा जी के रूप में हमने भी एक ऐसे इंसान को देखा जो बिल्कुल बच्चों की तरह मासूम है। ज्ञान, निश्छलता और सादगी से भरे पूरे आचार्य पंडा जी से मिलना अपने आप में एक आनंद देता है। ‘हास-परिहास‘ का सेंस भी उनमें ग़ज़ब का है।
हिंदी और अंग्रेज़ी में एक वचन और बहुवचन ही होता है जबकि संस्कृत में द्विवचन भी होता है।
उन्होंने अपने कोर्स को ऐसे डिज़ायन किया है कि उसमें से द्विवचन को हटा दिया है ताकि शुरू में सीखने वालों को आसानी हो सके। उनकी क्लास में हंसी के ठहाके छूटते रहते हैं और इसी तरह हंसी मज़ाक़ के दौरान मात्र 10 घंटों में ही वह आदमी को संस्कृत बोलने के लायक़ बना देते हैं। दसवें दिन वर्ग में सीखने वाले लड़के लड़कियों ने संस्कृत में भाषण देकर पूरे शहर को चौंका दिया था।
शहर भर के हिंदू मुस्लिम वर्ग का सहयोग इस कार्यक्रम को मिला और सभी को एक अच्छा संदेश मिला। 

रामपुर में उन्होंने बताया कि हमारे पिताजी शुद्ध नैष्ठिक ब्राह्मण हैं। अगर उन्हें पता चला कि हम मुसलमानों के घर खा पी कर आ रहे हैं तो वह हमें घर में घुसने ही नहीं देंगे।
उन्हें शुद्ध खाने में शाकाहारी भोज दिया गया।
दो दिन बाद वह बोले कि ‘मछली बनवाओ।‘
उनके भोजन का इंतेज़ाम सैयद साहब के घर पर था। उन्होंने उनके लिए मछली बनवाई, उन्होंने उसे खाया।
हम समझे कि वह मांसाहारी हैं। अगले दिन उनके लिए मुर्ग़ा बनवाया गया।
उसे देखकर उन्होंने खाने से इंकार कर दिया।
बोले हम मांस नहीं खाते।
उन्हें याद दिलाया गया कि कल आपने मछली खाई थी न।
बोले कि हां, लेकिन मछली को तो हम आलू की तरह मानते हैं।

भारत में भी अलग अलग इलाक़े के शाकाहारियों के भोजन का मेन्यू अलग अलग है।
भारत में ही नहीं विदेशों में भी ऐसा ही है। जापान में भी मछली को शाकाहारी भोजन में ही गिना जाता है।
ब्लॉगर रचना बैंकॉक गईं तो उन्होंने खाने के लिए वेज बर्गर मंगाया। मैक्डोनल्ड ने उन्हें बीफ़ बर्गर दिया। वहां गाय का मांस शाकाहार ही माना जाता है।
भारतीय संस्कृति की तरह ही विश्व संस्कृति भी बड़ी अद्भुत है।
यह जानना सचमुच एक अजीब बात है कि मांस उन लोगों के भोजन का भी हिस्सा है जो कि शाकाहारी हैं और शाकाहार की प्रेरणा देते हैं।
शाकाहार क्या है ?
लोग इस पर भी एकमत नहीं हैं।

3 comments:

  1. रोचक आलेख। जानकारी देता।

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  2. घोर विकृत मानसिकता से ग्रसित व्यक्ति अपनी विकृतियों के कारण या तो तथ्यों को समग्र यथार्थता से समझ नहीं पातें है , या अपनी विकृतियों को ना छोड़ पाने की लाचारी के कारण दूसरों को भी अपनी विकृतियों की झोंक में ले आना चाहतें हैं.
    जड़ बुद्धि के कारण शब्दों का उचित स्थान पर प्रयोग ना कर पाने की लाचारी के कारण कभी इन भाप्डों को हिन्दू ग्रंथों में मांसाहार दिखाई देता है तो कभी आदिवाणी वेदों में गौहत्या की गूंज .
    भारत में भोजन "निरामिष" और "सामिष" के रूप में वर्गीकृत है जिन्हें लोक भाषा में क्रमशः शाकाहार और मांसाहार के रूप में जाना/बोला जाता है .
    अर्थात भारतीय संस्कृति में भोजन की रेखा मांस रहित और मांस सहित , मांस को लक्षित किया गया है सारा व्यवहार इसे लेकर समझाया गया है की कहीं मांस ना हो .
    जबकि इतर संस्कृतियों विशेषकर आंग्ल संस्कृति में "वेजिटेरियन " और "नॉन-वेजिटेरियन " शब्द प्रयुक्त है . जो किसी वनस्पति/शाक से सम्बंधित आहार है वह "वेज" कहलाता है. इस भाषा नियम के हिसाब से हर वह वस्तु "नॉन-वेज" है जो वनस्पति/शाक नहीं है.
    इसी तरह हर संस्कृति के आहार सम्बन्धी क्रम/व्यतिक्रम कालक्रम से निर्धारित हुयें है. अब इसी लिए तो कहतें है की थोथा ज्ञानाभिमानी वास्तव में निरक्षरभट्टाचार्य से भी गया बीता होता है :)
    हम यहाँ भारतीय संस्कृति के अनुकूल "निरामिष" के समर्थन की बात करतें है और कुछ महाभट "जापान" का "अपान" यहाँ फैलाना चाह रहें है .
    रही बात बंगाली ब्राह्मणों की तो कुछ अध्यनशील बनिए पहले कुछ कुछ फिर सबकुछ समझ में आजायेगा की यह "मच्छी-झोल" का झोल कैसे इतना विस्तार ले पाया.
    बंगाल विगत सैकड़ों वर्षों से वाममार्गी शक्ति उपासना का गढ़ है जिसमें वाम साधना के विकृत आचार-विचारों का सम्पादन हर ओर व्याप्त था क्योंकि हर वाशिंदा वाममार्गी शक्ति-उपासक बन चुका था. तब ऐसे घटाटोप में जब पुनः मूल संस्कारों का उदय होना प्रारंभ हुआ और वैष्णवता के विचार के रूप में संस्कृति पुनः पल्लवित होने लगी तो सारी विकृतियाँ धीरे धीरे दूर हो गई. कुछ अवशेष अभी भी वर्तमान है, जो की तत्सामयिक घोरतम अनाचार के सामने नगण्य प्रतीत होता है जो समय पाकर स्वमेव हट जाएगा.

    दक्षिण के वाशिंदों में भी यह अनाचार कुछ इन्ही कारणों और अधिकांशतया मलेच्छों के दीर्घ संपर्क के संक्रमण से फैले है.
    लेकिन फिर भी "सामिष" पर "निरामिष" की उत्कृष्टता से हर बुद्धिमान प्राणी सहमत है चाहे वह खुद सामिष भोजी हो या निरामिष भोजी.

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  3. हम अपने पूर्वजों की महान विरासत की रक्षा ढंग से नहीं कर पा रहे हैं। हम तब जागते हैं जबकि दूसरा हमारी चीज़ों पर अपना क़ब्ज़ा जमा चुका होता है। हमारी कई जड़ी बूटियों को पश्चिमी वैज्ञानिक अपने नाम से पेटेंट करा चुके हैं। ताज़ा ख़बर के मुताबिक़ ब्रिटेन की नज़र हमारे अदरक और कुटकी पर है। उसने इनके ज़रिये नज़ले ज़ुकाम का इलाज ढूंढने का दावा किया है। यह लम्हा हमारे लिए आत्मविश्लेषण का है।

    अभिमान वास्तव में ही बहुत बुरा होता है। ज्ञान का हो तो और भी ज़्यादा बुरा होता है। इन लोगों से भी बढ़कर नुक्सान देने वाले वे तत्व होते हैं जो कि अपने इतिहास और अपनी परंपराओं को जानने के बावजूद भी भुला देना चाहते हैं। ऐसे लोगों के कारण ही आज प्राचीन पूर्वजों के बहुत से कारनामे भुला दिए गए हैं।

    मांस में प्रोटीन होता है और यह मनुष्य के लिए उपयोगी है। इस तथ्य को आज विज्ञान भली भांति स्वीकार रहा है। इसकी खोज हमारे पूर्वज उनसे बहुत पहले कर चुके हैं। आयुर्वेद के चरक और सुश्रुत जैसे महान ग्रंथों में वह अपनी खोज को दर्ज कर चुके हैं और यह सिद्ध है कि इन ग्रंथों की रचना उन्होंने वैदिक धर्म का पालन करते हुए ही की है।

    आज बल-पौरूष की कमी दुनिया के सामने एक बड़ी समस्या बनी हुई है। दुनिया वियाग्रा जैसी दवाओं का सहारा लेने पर मजबूर है। इन दवाओं के साइड इफ़ेक्ट भी सामने आ रहे हैं। लोग खा रहे हैं और मर रहे हैं।

    हमारे महान भारतीय मनीषियों ने इस समस्या का निदान भी आयुर्वेद के ज़रिये किया है। उनके बताए नुस्ख़े का इस्तेमाल करने के बाद एक मर्द 100 औरतों को चरम सुख की प्राप्ति करा सकता है। आनंद का रहस्य हमारे पूर्वज अच्छी तरह जानते थे और उन्होंने उसे हमारे लिए सुलभ भी कराया है।

    जो इस रहस्य को जानते हैं वे आज भी लाभ उठा रहे हैं। आप भी उठाइये।

    हमारे एक दोस्त हरिद्वार के पास ही रहते हैं। हरिद्वार में मांस नहीं बिकता लेकिन ज्वालापुर में बिकता है। वहां एक क़साई से हमारे दोस्त ने पूछा कि आपका काम यहां कैसा चलता है ?

    उसने कहा कि सुबह को दो बकरे काटता हूं और शाम को पांच।

    सुबह के बकरे मुसलमान ले जाते हैं और शाम के बकरे आश्रमों में चले जाते हैं। ...

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    मर्द को शक्तिशाली बनाता है आयुर्वेद Impotency
    http://aryabhojan.blogspot.com/2012/01/impotency.html

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